देह गंगा (Deh Ganga)
सुनसान राह और हाथ में हाथ ,
स्वप्न है देखा हमने साथ साथ ,
मन को ज्ञांत है छुआ है मन ,
प्रेम व्याप्त है सर्वत्र सर्वक्षण।
नटखट और मीठा मीठा अभिमान ,
देह तो दो है परन्तु एक है प्राण ,
मिलन का समय संध्या संधि ,
मनमुटाव को प्रेम बनाता है संधि।
निशि संकेत देता है प्रेम पूर्णता ,
समस्त प्रश्न है उत्तर बन जाता ,
अश्रु धुल जाता है हास्य गंगा से ,
पवित्र प्रेम घुल जाता देह गंगा में।
सरल प्रेम लिप्त वार्ता का अंत नहीं ,
निद्रा देवी परन्तु एक संत नहीं ,
दोनों के स्वप्न का होता विषय एक ,
मानविक भावना का निश्चय एक।।
( LOVE, AFFECTION, HUMANE AND COMPASSION IS THE ONLY ANSWER TO THE QUESTION RAISED BY HATE IN THIS ERA.)
By Rabindra Nath Banerjee(Ranjan)