डिब्रूगढ़(Dibrugadh)
(1970 December)
१९६९ में मैंने NCC (नेशनल कैडेट कॉर्प्स) ज्वाइन कर लिया था।
१९७० के दिसंबर महीने में हमारा कैंप डिब्रूगढ़ के लिए रवाना हुआ। ठंडक बेहिसाब, लिहाज़ा गरम कपड़ों से हम सभी २६ कैडेट, २ ट्रेनर और १ शिक्षक लदे थे।
हमने जहाँ कैंप के लिए जगह चुना था, ठीक उसके सामने एक बहुत बड़े राजमहल का ध्वंशावशेष खड़ा था।पता लगा कि वह राजमहल अहोम राज घराने से सम्बंधित था और तब तक कोई भी उस संपत्ति पर अपना अधिकार नहीं जताया था।
सुन्दर दृश्य था।बाएं तरफ ब्रह्मपुत्र नदी, दाहिने तरफ तुलुंग बाग़, सामने अहोम घराने का टूटा हुआ राजमहल पीछे शहर और राज मार्ग। विहंगम मनोरम दृश्य।
१५ टेंट लगाए जा चुके थे। १ टेंट में २ इंसान। १ टेंट किचन के लिये।नीचे गाओं में से दो आदमी को किचेन के काम के लिए ७ दिन के लिए रख लिया गया।
मुझे उस समय धूम्रपान की लत थी (गन्दी आदत)। हलाकि आज बिलकुल नहीं छूता।
तो मैं कह रहा था कि ,उस लत के कारण, सबकी नज़र बचाकर, उस राजमहल के पीछे जाकर धूम्रपान कर लिया करता था।
तीसरे दिन का कार्यक्रम ऐसा था कि दिनभर मुझे बिलकुल समय नहीं मिला एक भी सिगरेट पीने के लिए। कैंप से १३ किलोमीटर दूर हमारा अभ्यास का कार्यक्रम निश्चित किया गया था। दिल एकदम बेचैन हो रहा था। ऐसा होता है नशा। हमेशा नशे से परहेज करना चाहिए।
सभी थके हुए थ। खाना खाने के बाद सभी ८ बजे सो गए। मैं चुपचाप उठा और राजमहल के पीछे पहुँच गया। दो दिन पहले पूर्णिमा थी , आसमान एकदम साफ , चांदनी में नहाया हुआ वातावरण , फूलों की सुगंध , मैं आराम से एक पत्थर के ऊपर बैठ सिगरेट पी रहा था।
अचानक मुझे धीमे धीमे किसी औरत के रोने कि आवाज़ सुनाई देने लगी। मुझे डर नामक भावना से कोई भी सरोकार नहीं था और आज भी नहीं है। रोने की आवाज़ राजमहल से आ रही थी। कौतुहल वश मैं धीरे धीरे राजमहल के पास पहुंचा और पूछा , "कौन हो तुम ,क्यों रो रही हो ?"
कोई जवाब नहीं , और रोना बंद।
मैंने फिर अपना सवाल दो तीन बार दोहराया , लेकिन जवाब नहीं।
मैं भी थकावट महसूस करने लगा था , सो कैंप में आकर चुपचाप सो गया। लेकिन दिमाग में रह रह कर वो रोने कि आवाज़ गूंजने लगी। ये सोचकर कल फिर जाऊंगा , सो गया।